षटतिला एकादशी व्रत कथा - माघ कृष्ण पक्ष, कभी दान न करने वाली एक ब्राह्मणी की कथा
भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमुख से एकादशियों का माहात्म्य सुनकर श्रद्धापूर्वक उन्हें प्रणाम करते हुये अर्जुन ने कहा - “हे केशव! आपके श्रीमुख से एकादशियों की कथायें सुनकर मुझे असीम आनन्द की प्राप्ति हुयी है। हे मधुसूदन! कृपा कर अन्य एकादशियों का माहात्म्य सुनाने की भी अनुकम्पा करें।”
“हे अर्जुन! अब मैं माघ मास के कृष्ण पक्ष की षटतिला एकादशी व्रत की कथा सुनाता हूँ -
एक बार दालभ्य ऋषि ने पुलस्त्य ऋषि से पूछा - ‘हे ऋषि श्रेष्ठ! मनुष्य मृत्युलोक में ब्रह्महत्या आदि महापाप करते हैं तथा दूसरे के धन की चोरी तथा दूसरे की उन्तति देखकर ईर्ष्या आदि करते हैं, ऐसे महान पाप मनुष्य क्रोध, ईर्ष्या, आवेग एवं मूर्खतावश करते हैं, तदुपरान्त शोक करते हैं कि हाय! यह हमने क्या किया! हे महामुनि! ऐसे मनुष्यों को नरक से बचाने का क्या उपाय है? कोई ऐसा उपाय बताने की कृपा करें, जिससे ऐसे मनुष्यों को नरक से बचाया जा सके अर्थात् उन्हें नरक की प्राप्ति न हो। ऐसा कौन-सा दान-पुण्य है, जिसके प्रभाव से नरक की यातना से बचा जा सकता है, इन सभी प्रश्नों का हल आप कृपापूर्वक बताइये?’
दालभ्य ऋषि की बात सुन पुलत्स्य ऋषि ने कहा - ‘हे मुनि श्रेष्ठ! आपने मुझसे अत्यन्त गूढ़ प्रश्न पूछा है। इससे संसार में मनुष्यों का बहुत लाभ होगा। जिस रहस्य को इन्द्र आदि देवता भी नहीं जानते, वह रहस्य मैं आपको अवश्य ही बताऊँगा। माघ मास आने पर मनुष्य को स्नान आदि से शुद्ध रहना चाहिये एवं इन्द्रियों को वश में करके तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या तथा अहङ्कार आदि से सर्वथा बचना चाहिये।
पुष्य नक्षत्र में गोबर, कपास, तिल मिलाकर उपले बनाने चाहिये। इन उपलों से १०८ बार हवन करना चाहिये।
जिस दिन मूल नक्षत्र एवं एकादशी तिथि हो, तब उत्तम पुण्य देने वाले नियमों को ग्रहण करना चाहिये। स्नानादि नित्य कर्म से देवों के देव भगवान श्रीहरि का पूजन व कीर्तन करना चाहिये।
एकादशी के दिन उपवास करें तथा रात्रि को जागरण एवं हवन करें। उसके दूसरे दिन धूप, दीप, नैवेद्य से भगवान श्रीहरि की पूजा-अर्चना करें तथा खिचड़ी का भोग लगायें। उस दिन श्रीविष्णु को पेठा, नारियल, सीताफल अथवा सुपारी सहित अर्घ्य अवश्य प्रदान करना चाहिये, तदुपरान्त उनकी स्तुति करनी चाहिये - ‘हे जगदीश्वर! आप निराश्रितों को शरण देने वाले हैं। आप संसार में डूबे हुये का उद्धार करने वाले हैं। हे कमलनयन! हे मधुसूदन! हे जगन्नाथ! हे पुण्डरीकाक्ष! आप लक्ष्मीजी सहित मेरे इस तुच्छ अर्घ्य को स्वीकार कीजिये।’ इसके पश्चात् ब्राह्मण को जल से भरा घड़ा एवं तिल दान करने चाहिये। यदि सम्भव हो तो ब्राह्मण को गऊ एवं तिल दान देना चाहिये। इस प्रकार मनुष्य जितने तिलों का दान करता है। वह उतने ही सहस्र वर्ष स्वर्ग में वास करता है।
- तिल स्नान
- तिल की उबटन
- तिलोदक
- तिल का हवन
- तिल का भोजन
- तिल का दान
इस प्रकार छः रूपों में तिलों का प्रयोग षटतिला कहलाती है। इससे अनेक प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं। इतना कहकर पुलस्त्य ऋषि ने कहा, अब मैं एकादशी की कथा सुनाता हूँ -
एक बार नारद मुनि ने भगवान श्रीहरि से षटतिला एकादशी का माहात्म्य पूछा, वे बोले - ‘हे प्रभु! आप मेरा प्रणाम स्वीकार करें। षटतिला एकादशी के उपवास का क्या पुण्य है? उसकी क्या कथा है, कृपा कर मुझसे कहिये।’
नारद की प्रार्थना सुन भगवान श्रीहरि ने कहा - ‘हे नारद! मैं तुम्हें प्रत्यक्ष देखा सत्य वृत्तान्त सुनाता हूँ, कृपया ध्यानपूर्वक श्रवण करो -
बहुत समय पहले मृत्युलोक में एक ब्राह्मणी रहती थी। वह सदा व्रत-उपवास किया करती थी। एक बार वह एक मास तक उपवास करती रही, इससे उसका शरीर बहुत दुर्बल हो गया। वह अत्यन्त बुद्धिमान थी। किन्तु उसने कभी भी देवताओं तथा ब्राह्मणों के निमित्त अन्नादि का दान नहीं किया। मैंने चिन्तन किया कि इस ब्राह्मणी ने उपवास आदि से अपना शरीर तो पवित्र कर लिया है तथा इसको वैकुण्ठ लोक भी प्राप्त हो जायेगा, किन्तु इसने कभी अन्नदान नहीं किया है, अन्न के बिना जीव की तृप्ति होना कठिन है। ऐसा चिन्तन कर मैं मृत्युलोक में गया तथा उस ब्राह्मणी से अन्न की भिक्षा माँगी। इस पर उस ब्राह्मणी ने कहा - ‘हे योगीराज! आप यहाँ किसलिये पधारे हैं?’ मैंने कहा - मुझे भिक्षा चाहिये। इस पर उसने मुझे एक मिट्टी का पिण्ड दे दिया। मैं उस पिण्ड को लेकर स्वर्ग लौट आया। कुछ समय व्यतीत होने पर वह ब्राह्मणी शरीर त्यागकर स्वर्ग आयी। मिट्टी के पिण्ड के प्रभाव से उसे उस स्थान पर एक आम के वृक्ष सहित घर मिला, किन्तु उसने उस घर को अन्य वस्तुओं से खाली पाया। वह घबरायी हुयी मेरे पास आयी तथा बोली - ‘हे प्रभु! मैंने अनेक व्रत आदि से आपका पूजन किया है, किन्तु इसके पश्चात् भी मेरा घर वस्तुओं से रिक्त है, इसका क्या कारण है?’
मैंने कहा - ‘तुम अपने घर जाओ तथा जब देव-स्त्रियाँ तुम्हें देखने आयें, तब तुम उनसे षटतिला एकादशी व्रत का माहात्म्य एवं उसका विधान पूछना, जब तक वह न बतायें, तब तक द्वार नहीं खोलना।’
प्रभु के ऐसे वचन सुन वह अपने घर गयी तथा जब देव-स्त्रियाँ आयीं तथा द्वार खोलने के लिये कहने लगीं, तब उस ब्राह्मणी ने कहा - ‘यदि आप मुझे देखने आयी हैं तो पहले मुझे षटतिला एकादशी का माहात्म्य बतायें।’
तब उनमें से एक देव-स्त्री ने कहा - ‘यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो ध्यानपूर्वक श्रवण करो - मैं तुमसे एकादशी व्रत एवं उसका माहात्म्य विधान सहित कहती हूँ।’
जब उस देव-स्त्री ने षटतिला एकादशी का माहात्म्य सुना दिया, तब उस ब्राह्मणी ने द्वार खोल दिया। देव-स्त्रियों ने ब्राह्मणी को सभी स्त्रियों से भिन्न पाया। उस ब्राह्मणी ने भी देव-स्त्रियों के कहे अनुसार षटतिला एकादशी का उपवास किया तथा उसके प्रभाव से उसका घर धन्य-धान्य से भर गया, अतः हे पार्थ! मनुष्यों को अज्ञान को त्यागकर षटतिला एकादशी का उपवास करना चाहिये। इस एकादशी व्रत के करने वाले को जन्म-जन्म की निरोगता प्राप्त हो जाती है। इस उपवास से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।”
कथा-सार
इस उपवास को करने से जहाँ हमें शारीरिक पवित्रता एवं निरोगता प्राप्त होती है, वहीं अन्न, तिल आदि दान करने से धन-धान्य में वृद्धि होती है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि मनुष्य जो-जो और जैसा दान करता है, शरीर त्यागने के पश्चात् उसे फल भी वैसा ही प्राप्त होता है, अतः धार्मिक कृत्यों के साथ-साथ हमें दान आदि अवश्य करना चाहिये। शास्त्रों में वर्णित है कि बिना दान किये कोई भी धार्मिक कार्य सम्पन्न नहीं होता।